मीराबाई : हिंदी की पहली स्त्री विमर्शकार
साहित्य समाज का दर्पण है। जब वह युगीन यथार्थ को प्रतिबिंबित करता है तो उसका लक्ष्य दोहरा होता है। एक, युगीन विकृतियों, विसंगतियों और रुग्णताओं को विश्लेषण का विषय बना कर उनके निवारण हेतु समुचित समाधान खोजना। दूसरा, अपने अनुभव-सत्य से गुजर कर बेहतर भविष्य के निर्माण हेतु भावी पीढ़ी का दिशा-निर्देश करना। मीरा का काव्य स्त्री-मानस की पीड़ा को शब्द देता है। मीरा के युग में स्त्री आत्माभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र नहीं थी। वह पुरुष के उपयोग-उपभोग के लिए थी और पुरुष की दृष्टि से देखी जाती थी। स्त्री के सुख-दुख, सपने-आकांक्षाएँ, वर्तमान-भविष्य उसके अपने भीतर निहित नहीं थे, पुरुष-समाज द्वारा प्रत्यारोपित किए जाते थे। इसलिए स्त्री की नजर से स्त्री-मानस को पढ़ने का संस्कार और आवश्यकता मध्ययुग में कहीं दिखाई नहीं देती। 1498 से 1546 तक की जिस कालावधि में मीरा के होने का अनुमान इतिहासकार लगाते हैं, वह काल हिंदी साहित्य में भक्तिकाल के नाम से जाना जाता है। भक्तिकाल सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक उत्पीड़न के विरोध में उठा एक सांस्कृतिक आंदोलन है जो व्यक्ति की ऐहिक-ऐंद्रिक सत्ता को झुठला कर परलोक की सम्मोहक अवधारणा समक्ष रखता है। चाहे इसे नैराश्य से उबरने का जिजीविषापूर्ण प्रयास कहा जाए या अपनी क्षीण होती अस्मिता को बचाने की अकुलाहट - भक्ति आंदोलन ने पारलौकिकता के गाढ़े आवरण के बीच व्यक्ति की भौतिक सत्ता, समाज-व्यवस्था और संबंधों के महीन अंतर्जाल को गहराई से देखा-परखा है। अलबत्ता लोक और परलोक के बीच अपने को स्थापित करने की द्वंद्वग्रस्तता भक्ति साहित्य में साफ झलकती है। यह द्वंद्वग्रस्तता आत्मस्वीकृति चाहती है तो तत्काल आत्मनिषेध की गूँजती हुंकार से भयभीत हो पीछे हट जाती है। इसलिए विद्रोह और यथास्थितिवाद भक्तिकाल में साथ-साथ चले हैं। परवर्ती आलोचना इन द्वंद्वों को चिह्नित करने की अपेक्षा साहित्येतिहास के काल विभाजन और नामकरण को सटीक सिद्ध करने की कोशिश में संवत् 1350 से संवत् 1700 तक के मध्ययुगीन कालखंड को भक्ति-धारा से आप्लावित होने का पूर्वाग्रह लेकर चली है। यही कारण है कि वह मीरा काव्य की भास्वर आत्माभिव्यक्ति को अलक्षित कर उसे कबीर, सूर, तुलसी, रसखान सरीखे भक्त कवियों की कोटि में रखती आई है। परिणामस्वरूप मीरा-काव्य में निहित परिवार, कुल, राजसत्ता के प्रति विद्रोह की तीव्र टंकार को लौकिक जीवन का निषेध कर अलौकिक ईश्वरीय सत्ता से जुड़ने की ललक के रूप में पढ़ा-गुना गया। आलोचना की यह परंपरागत दृष्टि मीरा-काव्य के मूल स्वर के साथ न्याय नहीं कर पाती। मीरा-काव्य के केंद्र में है मीरा के भीतर की निखालिस स्त्री जो पुरुष-दृष्टि की चौकसी और दबाव से मुक्त हो अपने मनोजगत में दहकती लालसाओं को निर्भीक भाव से व्यक्त कर रही है। वह अपने विरोध की प्रचंडता को भी जानती है, परकीय प्रेम के प्रति दुर्निवार आकर्षण की 'अनैतिकता' को भी और अकेले समाज से टकराने के जोखिम को भी। आज की आलोचना स्त्री विमर्श के नाम पर स्त्री की आत्माभिव्यक्ति को व्यापक सामाजिक संदर्भ में देखने की कोशिश करती है।
स्त्री विमर्श अस्मिता आंदोलन है। यह हाशिए पर धकेल दी गई अस्मिताओं को पुनः केंद्र में लाने और उनकी मानवीय गरिमा को पुनर्प्रतिष्ठित करने का महाभियान है। स्त्री विमर्श अपनी मूल चेतना में स्त्री को पराधीन बनाने वाली पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का विश्लेषण करता है। यह स्त्री को दोयम दर्जे का प्राणी मानने का विरोध करता है और स्त्री को एक जीवंत मानवीय इकाई समझने का संस्कार देता है। स्त्री विमर्श पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पड़ताल करने के उपक्रम में विवाह संस्था, धर्म, न्याय और मीडिया की स्त्रीविरोधी भूमिका को प्रकाश में लाता है। यह ठीक वही भावोच्छ्वास है जो मीरा-काव्य में सर्वत्र बिखरा मिलता है। मीरा के काव्य में सर्वाधिक मुखर है विवाह संस्था के प्रति असंतोष का भाव जो राणाजी के जानलेवा षड्यंत्र और सास-ननद के उत्पीड़न के जरिए उभरता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्री को शक्तिहीन करके पुरुष को बलशाली बनाने का महान उपक्रम है। स्त्री को शक्तिहीन और रिक्त करने की यह प्रक्रिया बेहद सूक्ष्म, जटिल, एवं संशिलष्ट है। एक ओर उसकी महत्ता के डंके पीट कर उसे शील, शक्ति और सौंदर्य की अधिष्ठात्री कहा जाता है तो दूसरी ओर कर्तव्यपरायणता, एकनिष्ठा, सहिष्णुता, त्याग और क्षमा जैसे उच्चादर्शों में बाँध उसकी परिधि को बेहद संकुचित कर दिया जाता है। स्त्री अपने लिए नहीं जीती। उसे दूसरों के लिए जीना सिखाया जाता है - पुरुष के लिए, पुरुष के परिवार के लिए, पुरुषनिर्मित व्यवस्था के लिए। इसीलिए परिभाषाओं और वर्जनाओं में मात्र उसी की सत्ता को बांधा जाता है, पुरुष की नहीं। जन्म से स्त्री और पुरुष दोनों संस्कार रूप में इन परिभाषाओं और वर्जनाओं को मूक भाव से स्वीकार करते हैं और उन्हीं के अनुरूप अपनी जीवन-शैली विकसित करते हैं। सामान्यतया कहीं विवाद या संवाद की कोई गुंजाइश नहीं। किंतु मीरा के साथ ऐसा नहीं हुआ। निःसंदेह पितृगृह में उन्होंने भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का शासन और अनुशासन देखा होगा और स्त्री-पुरुष संबंधों में असमानता की बात उनके रोजमर्रा के जीवन से होकर गुजरी होगी। किंतु अनुभव के स्तर पर शायद अनुशासन और असमानता को उन्होंने न भोगा हो क्योंकि आम राजपूत कन्याओं से भिन्न उनकी शिक्षा-दीक्षा चचेरे भाई जयमल के साथ हुई। अंतःपुर से बाहर निकल कर भाई के संग शिक्षा ग्रहण करने के अधिकार ने मीरा में निश्चय ही एक स्वतंत्रचेता व्यक्तित्व का विकास किया जो विवेक, स्वाभिमान और दृढ़ता के सहारे अपनी मानवीय गरिमा अक्षुण्ण रखना जानता है। पुरुषों को ये गुण श्रेष्ठ बनाते हैं, स्त्रियों को जिद्दी, अहंकारी और कुलांगार। इसलिए पत्नी एवं कुलवधू के रूप में जैसे ही मीरा से पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा पोषित रूढ़ छवियों में बंधने की माँग की गई, स्वप्नद्रष्टा मीरा की स्वतंत्रता की भावना को गहरी ठेस लगी।
दो
' लोकलाज कुलकाण जगत की, दी बहाय ज्यूं पांणी।
अपने घर का परदा कर लौं, मैं अबला बौरांणी।'
किसी भी आत्माभिमानी पुरुष की भाँति मीरा अपने जीवन में किसी के अयाचित हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं कर सकती। अपने ढंग से जीना उसकी मजबूरी है। इस जीवन शैली में 'मुँह उघाड़' कर साधुओं की संगति का 'दुस्साहस' आए, तो भी। लेकिन मीरा का दुर्भाग्य है कि 'सत्संगति' की मामूली सी इच्छा को भी कोई स्वीकृति नहीं दे रहा है। सभी ओर से दुत्कार-फटकार-निषेध। मीरा चकित है और किंकर्तव्यविमूढ़ - 'राजा बरजै राणी बरजै, बरजै सब परिवारी / कुंवर पाटवी सो भी बरजै और सहेल्यां सारी।' जिस राणा से परिणय कर मेवाड़ आई, वह भी गरिया रहा है - ' राणो जी म्हासूं रूस रह्यौ छै, कूड़ा बचन निकासै हे माय।' यहाँ तक कि पितृकुल भी उसके संस्कार, शिक्षा-दीक्षा और निर्णय की अवमानना कर उसी को दोषी ठहरा रहा है - 'मेड़तिया रा कागद आया, बाई मीरां ने जा खीज्ये जी / बोहत भाँति से लिख्या ओलंभा, कुल कै दाग मत दीज्यो जी / साधां को संग परो निवारे पति आज्ञा में रीज्यो जी।' मीरा बताना चाहती है कि हरि भक्ति में लजाने जैसा कुछ भी नहीं। इससे तो उसके पितृकुल और श्वसुर कुल दोनों का ही उद्धार होगा - 'एक कुल त्यारां राणा आपणो, दूजो बंस राठौड़। तीजो त्यारां जी राणा मेड़तो, चौथौ गढ़ चित्तौड़।' ननद ऊदाबाई 'साधां की संगत दुख भारी' कह कर जिस अभावग्रस्त जिंदगी की ओर संकेत करना चाहती है, उसे तो मीरा मुक्ति का मार्ग समझती है - 'बास्या ता खास्यां टूकड़ा ये, बाई पीस्यां खाटी छाय। / भैं सोवां भूखां मरां ये, बाई जब रे मिलेगो हरि आय। माया म्है तो यूँ तजी।'
मीरा परिवार से संवाद बनाए रखने की हर संभव कोशिश करती है। ननद ऊदा के सामने वह अपने अवश मन का रेशा-रेशा खोल देती है - ' यो मन लाग्यो वैराग से, रमस्या साधां री लार, संतां री लार, भक्ति न छूटै हरि नाम की'। अपने लौकिक अधिकारों एवं भौतिक सुखों का परित्याग करने में जरा भी संकोच नहीं -
' बाई ऊदा छोड्यो मैं मोत्यां को हार, गहणो तो पहर्यो सील संतोष को
बाई ऊदा चढ़ चौबारा झाँक, साधां की मंडली लागे सुहावणी।'
' भाभी सब महलां में थारो सीर' - ऊदा के प्रलोभनों से भी अडिग है मीरा - 'राजपाट भोगो तुम्हीं, हमें न तासूं काम।' अपने निर्णय को राणा तक पहुँचा कर वह निश्चिंत हो जाना चाहती है -
' मेरी बात नहीं जग छानी, ऊदाबाई समझो सुघर सयानी
साधू मात पिता कुल मेरे, सजन सनेही ज्ञानी
संत चरन की सरन रैन दिन, सत्त कहत हूँ बानी
राणा नैं समझावो जावो, मैं तो बात न मानी।'
चारित्रिक दृढ़ता एवं ईमानदारी के कारण पारदर्शिता मीरा की पहचान है और उसकी मानवीय रक्षा का प्रमुख घटक भी। मीरा ने छल या विश्वासघात नहीं किया तो लोकापवाद क्यो? 'संतन के ढिंग' बैठने से और हरिभक्ति मे भावविभोर होकर नाचने से कुल की मर्यादा का हनन कैसे? मीरा पितृसत्तात्मक व्यवस्था के जड़ कठोर नियमों को नहीं समझ सकती और स्वयं किसी तर्क द्वारा अपनी हार्दिकता और निश्छलता उस तक प्रेषित नहीं कर सकती। व्यवस्था और व्यक्ति के बीच संवाद संभव ही नहीं। इसलिए संबंधों में घुटन और दरकन -
' सास बुरी म्हारी ननद हठीली
जलबल होय जाय अंगीठी'
और
' राणा जी थे क्याने राखों मोंसू बैर
राणा जी म्हांने ऐसा लगत है ज्यूं बिरछन में कैर।'
या
' राणा जी का देस में कोई, जल पीबा को दोस।'
उत्पीड़न का संत्रास और संकल्पदृढ़ता का ठसका - मीरा अपने ही द्वंद्वों में अनिश्चित सी घिरी खड़ी है -
हेली म्हांसूं हरि बिन रह्यो न जाय।
सासु लड़ै मोरी ननद खिजावै, राणां रह्यो रिसाय
पहरो भी राख्यो, चोकी भी बिठाइयो, ताला दिया जुड़ाय
पूर्वजनम की प्रीत पुरानी सो क्यों छोड़ी जाय।'
मीरा संबंधों में स्पेस चाहती है, संबंधों से मुक्ति नहीं। उसकी मानसिक संरचना के ताने-बाने में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की रूढ़ छवियों के साथ स्वप्नशील व्यक्ति की सघन संवेदनशीलता है; कर्तव्यपालन की एकनिष्ठ दृढ़ता के साथ 'स्व' की सुरक्षा और सम्मान की मानवीय आकांक्षा भी। एक औसत स्त्री की तरह मीरा सरलहृदया है, किंतु औसत स्त्री से भिन्न ज्ञानपिपासु। सत्संगति के महत्व की जो सैद्धांतिक बातें वह पोथियों में पढ़ती आई है, क्यों न उन्हें जीवन में उतार जीवन सफल बना ले। साधु संगति मीरा के लिए ज्ञानार्जन और आत्मविस्तार का जरिया है - भौतिक जगत के रहस्यों को जानने, जगत के साथ अपने संबंधों को गुनने और अपनी मानवीय सत्ता को एक सार्थक दिशा देने का। मीरा के अनुभव सीमित हैं - अपने ही वृत्त में बंद स्त्री जीवन की नियति के कारण। वह आरोपित स्त्री नियति से ऊपर उठ कर 'अपने' को तलाशना और सँवारना चाहती है। उल्लेखनीय है कि इस तलाश में परिवार और संबंधों का निषेध नहीं है, बल्कि उनके अर्थ और अंतरंगता का विस्तार है -
' माई म्हारै साधां रो इक्तयार है
साधु ही पीहर साधु ही सासरो, सांवरिया भरतार है
जात पांत कुल कुटम कबीलो, साधू ही परवार है
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, रमस्यां साधां री लार है।'
' भाग खुल गए म्हारे साध संगत सूं' - अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने की विकलता मीरा के भीतर कितने ही संभव संकल्प-विकल्प जगाती है -
बरजी मैं काहू की नाहिं रहूँ
साध संगति करि हरि सुख ले, जगसूं मैं दूरी रहूँ
तन धन मेरो सब ही जावो, भल मेरो सीस लहूँ
मन मेरो लागो सुमिरन सेती, सबको मैं बोल सहूँ।'
'सबको मैं बोल सहूँ' कहने वाली नतशिर संयमी मीरा 'म्हांने बोल्यां मत मारो जी राणां, यो लै थारो देस' कह कर राजसत्ता, पितृसत्ता, कुल को ठोकर मारती विद्रोहिणी अनायास नहीं बनी है। तिरस्कार से अधिक दमन और उत्पीड़न ने उसके भीतर की कोमलता और मनुष्यता को आहत किया है। 'गहरो लाग्यो है घाव' - अपनी असुरक्षा से अधिक वे व्यक्ति के भीतर की अमानुषिकता को देख थर्रा गई हैं। वे स्तंभित हैं -
'सीसोद्या राणं प्यालो म्हांने क्यूं रे पठायो
भली बुरी तो मैं नहिं कीन्हीं, क्यूं है रिसायो
कनक कटोरे ले विष घोल्यो, दयाराम पंडो लायो'
अवाक् भी -
'कोप कियो राणाजी जब ही, सांप गला में डार्यौ'
और अपमानित भी -
' राणूं मन में कोपियो जी, मारो याके सेल।
मार्यां तो पिराछित लागै जी, पीहर दो याकों मेल
रथड़ां बहल जुपाइया जी, उल्टा कसिया भार।
डावो छोड़ो मेड़तो जी, पेलां पोषर जाय
राणां साड्यां मोकल्या जी, पाछा ल्यावो मोड़।
कुल की मांडण इस्तरी, मुरड़ चली राठोड़।'
घरेलू हिंसा की शिकार औसत स्त्री सरीखी मीरा के पास दो ही विकल्प हैं - रो-रो कर प्राण दे दे या सजग-चौकन्नी होकर अपने प्राण और स्वाभिमान की रक्षा करे। सर्पदंश को पुष्पहार और विष को अमृत बना लेने का जीवट सामान्यतया स्त्रियों के पास नहीं होता। मीरा के पास है। एक नहीं, कई अहम फैसलों के रूप में। सबसे पहले आत्म-साक्षात्कार कि क्या खरा-खोटा सब डंके की चोट पर कह देने की निर्भीकता उसमें है? मीरा यहाँ जरा भी संशयग्रस्त नहीं - ' जो कोउ मोको एक कहोगो, एक की लाख कहोंगी'। फिर विश्लेषण! जो व्यक्ति संबंध की गरिमा का निर्वाह न कर पाए, क्या उससे संबंध बनाया और निभाया जाना चाहिए? बेहद आधुनिक सवाल जिसका जवाब गुनने में दोषारोपण हेतु उठी एक उँगली यदि दूसरों की ओर है तो अपनी ओर उठी हैं तीन अँगुलियाँ। मीरा क्षणिक आवेश में नहीं, धीरज के साथ गुन-बुन कर दांपत्य संबंध को नकारती हैं -
'राणांजी हूँ तो गिरधर कै मन भाई।
जैमल के घरि जनम लियो है, राणा नैं परणाई।
सांचा सनेही म्हारै रामसंतजन, जासूं प्रीति लगाई।
जौ पकड़ेगा हाथ हमारो, खबरदार मन माही
सांचा मनसूं सराप ज द्यूंली, बलि'र भसम होइ जाई
जनम जनम की मैं दासी राम की, थारी नाहिं लुगाई।'
इतना ही महत्वपूर्ण है दूसरा सवाल कि जिससे संबंध त्याग दिया है, क्या उसके भौतिक-सामाजिक संरक्षण में रहना चाहिए? आत्माभिमान से दिपदिपाती मीरा किसी भी आधुनिक विद्रोहिणी से कमतर नहीं। 'खीर खांड', 'दिखणी चीर' और 'माणक मोती' का परित्याग तो मीरा ने कब से कर रखा है, फिर दो मुट्ठी अन्न के लिए राणा की क्या धौंस -'हो जी सीसोद्या राणा, मनड़ो बैरागी धन रो क्या करूँ।' जब राह अलग है 'मान अपमान दोउ धर पटके, निकली हूँ ज्ञान गली' और जीवन शैली भी 'पग घुंघरू बाँध मीरा नाचत री' / 'पगा बजावत घूंघरा जी, हाथ बजावत ताल' तो राणा की सत्ता की क्या परवाह - 'तुम जावो राणा घर आपणे, मेरी तेरी नाहिं सरी'।
इसके बाद शेष रह जाता है अपनी स्वतंत्र राहों का अन्वेषण - कुल की मर्यादा या राजसत्ता पर आँच आती हो अपने कुल का पर्दा करने की जिम्मेदारी उनकी।
मीरा की निस्संगता और निर्ममता में लक्ष्यसिद्धि के लिए दृढ़संकल्प मनुष्य की एकनिष्ठ टंकार है - ' बाल्हा मैं बैरागिण हूँगी हो / जीं जीं भेस म्हारो साहिब रीझे, सोई-सोई भेस धरूंगी हो / साधां संग रहूँगी हो।'
दरअसल जब मीरा यह कहती है कि 'अपने घर का परदा कर लौं, मैं अबला बौरानी' तब दो चीजों को एक साथ परिलक्षित किया जा सकता है। एक, हताशा के गर्भ से फूटता स्त्री का विद्रोह और स्त्री के 'मनुष्यत्व' की रक्षा के लिए पितृसत्तात्मक व्यवस्था के स्वरूप की पुनर्संरचना। मीरा का विद्रोह उन स्थितियों की पड़ताल करने की नैतिक जवाबदेही है जो 'अबला' कही जाने वाली निरीह पराश्रित स्त्री को 'बौराने' और 'आक्रामक' होने को विवश करती हैं; बार-बार उन पूर्वाग्रहों और जड़ताओं को चीन्ह लेने की आकांक्षा करता है जो स्त्री की आत्मविकास की नैसर्गिक आकांक्षा को 'लोकलाज' और 'कुल' के उल्लंघन से जोड़ता है - उस कुत्सित मानसिकता को तुरंत निषिद्ध कर देने की माँग करता है जो पुरुष और व्यवस्था की हर अमानुषिकता को अनुशासन और नियम-पालन का पर्याय बना देती है। उल्लेखनीय है कि संवैधानिक कानूनों और सामाजिक अधिकारों के बावजूद आज भी स्वतंत्रचेता स्त्री उन्मुक्त साँस लेने की हर कोशिश में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के बंद दरवाजों के बाहर खड़ी है; उसकी मानवीय आकांक्षाएँ आज भी मीरा की तरह लगभग पाँच सौ वर्ष बाद भी पूर्ति की राह देख रही है।
मीरा का काव्य विद्रोहिणी स्त्री पर लगाए गए इन आरोपों का जवाब है कि वह स्वतंत्रता की आड़ में संबंध-व्यवस्था से मुक्त हो उच्छंखल जीवन जीना चाहती है। बेशक बेहद मुखर हो मीरा स्वीकार करती है कि 'मोहे या बदनामी लागै मीठी... मैं चाल चलूंगी अनूठी' लेकिन विद्रोह के हर बढ़ते कदम के साथ वह मानवीय संबंधों के मानवीय, अंतरंग और सकारात्मक स्वरूप को स्वीकृति देती गई है। बेशक मीरा मनुष्य के रूप में अपनी गरिमा और आत्मसम्मान बनाए रखना चाहती है, लेकिन 'सतीत्व' का अस्वीकार भी नहीं करती। विवाह और परिवार संस्था के नकार की बात वह सोचती भी नहीं। हाँ, उसके स्वरूप को पुनर्संस्कारित करना चाहती है जहाँ पति राणा जैसा क्रूर आत्मकेंद्रित स्वार्थी पुरुष नहीं, कृष्ण जैसा संवेदनशील पुरुष है।
हिंदी आलोचना प्रायः राणा को मीरा के देवर विक्रमजीत सिंह के रूप में चिह्नित करती रही है और मीरा के सुखी दांपत्य जीवन की परिकल्पना कर ससुराल द्वारा वैधव्य के उपरांत मीरा के उत्पीड़न-दमन के तथ्य को रेखांकित करती रही है। संभवतया इसका कारण मीरा के जीवन से संबद्ध कुछ इतिहाससम्मत तथ्यों-तिथियों एवं घटनाओं की खोज कर ऐतिहासिक वातावरण की निर्मिति का विचार रहा हो लेकिन यह भी सत्य है कि मीरा को लेकर निर्विवाद रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अतः बाह्य साक्ष्य को मीरा के काव्य पर आरोपित करने की अपेक्षा क्यों न अंतः साक्ष्य के आधार पर मीरा के स्वर को सुना एवं गुना जाए? मीरा अपने एक पद में हार-सिंगार, रेशम की साड़ी और हाथ की चूड़ियाँ त्यागने की बात करती है। उल्लेखनीय है कि विधवा मीरा देवर राणा से उन सभी सुहाग-चिह्नों को अभिमानपूर्वक त्यागने की बात नहीं कर सकती थी जो समाज व्यवस्था ने पति राणा की मृत्यु के उपरांत उससे जबरन छीन लिए हैं। ठीक इसी प्रकार अपने एक पद में मीरा आत्मपरिचय देते हुए 'जैमल के घरि जनम लियो है, राणा नैं परणाई' कहती जरूर हैं, लेकिन साथ ही बदली परिस्थितियों और विद्रोही मानसिकता में इस संबंध की आंतरिकता और नैतिकता का निषेध भी कर देती हैं कि 'जनम जनम की मैं दासी राम की, थारी नाहीं लुगाई।' मीरा का काव्य एक सामान्य स्त्री के हृदय का हाहाकार हैं। वह मनस्ताप का मुखर आर्त्तनाद है जहाँ किसी भी शिक्षित-अशिक्षित आधुनिका स्त्री की तरह वह सास-ननद और पति को बार-बार जी भर कर गालियाँ दे रही है। मन को टूक-टूक कर देने वाली कटु स्मृतियों की कसक एक लंबे अंतराल के बाद भी क्षीण नहीं हुई। राजसत्ता के प्रतीक रूप में 'राणा' संबोधन किसी को भी निवेदित हो सकता है, किंतु पारिवारिक संबंध में यदि मीरा देवर को दोष देना चाहती है तो वह पदवी विशेष की आड़ क्यों लेती है जबकि लोकजीवन में स्त्री 'राणा', 'स्वामी' आदि संबोधनों का प्रयोग पति के लिए करती है। यानी इस स्थिति से अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि राणा/पति को क्लीन चिट देने के पीछे हिंदी आलोचना का पुरुष श्रेष्ठता का दंभ सक्रिय रहा होगा। चूँकि पति परिवार में परमेश्वर का समरूप है, अतः उसकी सत्ता और वर्चस्व को निष्कलंक और स्वयंसिद्ध बनाए रखने के लिए उसकी छवि को निर्मल और उदात्त बनाना अनिवार्य है। वह पोषक है, कर्तव्यपरायण निःसंग पुरुष और न्यायशील प्रशासक। गृह-क्लेश और दमन-उत्पीड़न जैसी क्षुद्रताओं में संलग्नता उसकी इस उदात्त 'अलौकिक' छवि को क्षरित करती है। अतः पति के रूप में वह सदा काम्य और वरेण्य है, क्रूर और अमानुषिक नहीं, हालाँकि आज भी दहेज-उत्पीड़न, वधू-दहन एवं घरेलू हिंसा से संबद्ध आँकड़े सास-ननद के साथ पति की सक्रिय भागीदारी की बात रेखांकित करते हैं।
तीन
' आणै आणै जी रंगभीना म्हारै महल / प्यालो तो लियाँ हाजर खड़ी'
मीरा का समूचा काव्य उत्पीड़ित स्त्री के आर्त्तनाद और विरहिणी प्रिया के करुण हाहाकार का प्रामाणिक दस्तावेज है। निजी जीवन की अनुभूतियाँ और गोपन मन की रहस्यात्मकता जिस सूक्ष्म भाव से मीरा-काव्य में व्यंजित हुई है, वह उसे अन्य भक्त कवियों से अलगाता है। मीरा के पद अपनी मूल संरचना में उत्कट भावोच्छ्वास में लिखी गई डायरी की प्रविष्टियाँ हैं - मन का निजी कोना जहाँ न अपने को बेहतर रूप में प्रस्तुत करने की सामाजिकता है, न विकारों को छुपाने की व्यावहारिकता। है तो अपनी भौतिक सच्चाई को अकुंठ निर्भीक भाव से स्वीकारने की ईमानदारी - अपने को अतीत, वर्तमान और भविष्य की एक सीधी रेखा में रख का जाँचने की निःसंगता। मीरा के सरोकार किसी स्त्री विमर्शकार की तरह सजग-सचेतन रूप से न स्त्री जाति के कल्याण से जुड़े हैं, न पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पुनरीक्षण की माँग से। अपने से बाहर 'मनुष्य' की सत्ता को जानने का बोध मध्ययुगीन व्यवस्था में विकसित हुआ ही नहीं था। निर्गुण संत कवियों की बानी में गूँजने वाला सकारात्मक विद्रोही स्वर दरअसल वैयक्तिक स्तर पर अपनी पीड़ा और दमित आकांक्षाओं की मुखर एवं सामूहिक अभिव्यक्ति रही है। मीरा-काव्य में स्त्री मुक्ति के स्वर भी अपनी वैयक्तिकता की अभिव्यक्ति की उत्कट इच्छा का परिणाम है।
कृ़त्रिमता एव छद्म छल-छंद से सर्वथा मुक्त मीरा स्त्री-मानस को उसकी उद्दाम कामनाओं के साथ चित्रित करती हैं। इस प्रक्रिया में लौकिक मर्यादाएँ और वर्जनाएँ बार-बार टूटने की कगार पर आती हैं, टूट भी जाती हैं। अनेक बार मीरा अपने भीतर की प्रचंडता से आतंकित हो पुनः अपनी सुरक्षित चारदीवारी में बँध जाना चाहती है किंतु चारदीवारी के भीतर पलती नृशंसताओं एवं असुरक्षा को वह पहले ही प्राणों के मोल पर झेल चुकी है, अतः प्रत्यावर्तन का विकल्प भी नहीं। तब उसके सामने एक ही विकल्प है - युगीन प्रवाह में बह कर लौकिक पर आध्यात्मिक का आरोपण। यह विकल्प एक ओर यदि मीरा के भीतर की स्त्री की द्वंद्वग्रस्तता, निरीहता एवं विवशता का संकेतक है तो दूसरी ओर अपनी दैहिक कामनाओं को पूरी ऐंद्रिकता के साथ प्रकट करती एक नई स्त्री-छवि को संपुष्ट भी करता है। ' अपणा गिरधर कै कारणै मीरा वैरागण हो गई रे' - मीरा की यह आरोपित भक्त-छवि विकल प्रेयसी के रूप में मीरा के अध्यात्म की प्रक्रिया को बाधित करती है किंतु जोगी के लिए 'सरप डसी' मीरा की टेरती टीस क्या अनसुनी की जा सकती है? इस जोगी की 'माधुरी मूरत सुंदरी सूरत' 'नैनन' में बसने वाले नंदलाल से भिन्न है। इस जोगी के अधरों पर न मुरली है, न 'उर' पर वैजयंती माल; न कटितट पर क्षुद्र घंटिका सुशोभित हैं, न नूपुर शब्द का मधुर रस, बल्कि यह 'जोगी' राजस्थानी वेशभूषा में घर-घर अलख लगाता संन्यासी भर है -
' कुसुमल पाग केसरियाँ जामा, ऊपर फूल हजारी
मुकुट ऊपरे छत्र बिराजे, कुंडल की छबि न्यारी।'
अथवा
' पाग कसूमल केसरया जामूं, सोहै कुंडल कान।'
इस जोगी के संग वैवाहिक जीवन से अतृप्त स्त्री का मन जुड़ जाए तो अन्यथा क्या। पति से उसकी सामान्य अपेक्षाएँ ही तो रहीं। वह कृपा-दृष्टि नहीं, प्रेम-दृष्टि चाहती है। पति की 'रिसाई' दृष्टि में कोप है जहाँ अपने को दग्ध होने से बचाने की सतर्कता है लेकिन जोगी की दृष्टि 'मानो प्रेम की कटारी है' जहाँ बिंध-बिंध कर अपने को संपूर्णता में चीन्ह लेने की खुमारी है। पति के 'कूड़ा बचन' उसके स्त्रीत्व की लानत-मलामत करते हैं, तो जोगी की मीठी बातें दिल और देह की तार-तार झंकृत कर उसके भीतर यौवन की दहकती कामनाएँ उत्पन्न कर देती हैं। दांपत्य एवं देह मिलन के संदर्भ नए अर्थों में उसके समक्ष खुलते हैं तो वह अपने पत्नीत्व की सार्थक परिणति में आह्लाद से भर कर सेज सजाने की सभी तैयारियाँ पूर्ण कर लेना चाहती है -
' अतर सुगंध मिलायके जी, घी भर दिवला बार
जाई जूही केतकी जी, चंपाकली सुधार
पलकां सूं करां पाँवड़ा जी, अंचलां सूं मग झार।
गिरधर म्हारो परम सनेही, मीरां उनकी नार।'
' आद अंत तन मन धन मेरे, आनंद करां कलोले' - रोम-रोम में संचारित कामनाओं का उत्ताप उसे विह्वल बना देता है -
' करके सिंगार पलंग पर बैठी, रोम रोम रस भीना
चोली के मेरे बंद तरक गए, श्याम भए परबीना।'
प्रेम-दीवानी मीरा अपनी मनोभावनाओं को किसी से छुपाना भी नहीं चाहती -
' ज्यूं अमली से अमल अघारा, यूँ रमैया प्राण हमारा
कोई निंदै बंदै दुख पावै, मोकूं तो रमैयाँ भावै।'
तथा
' अब कोऊ कछु कहो, दिल लागा रै
हंसा की प्रकृत हंसा जाणे, का जाणैं नर कागा रैं
तन भी लागा, मन भी लागा, ज्यों बामण गल धागा रैं।'
कामनाएँ मानस में रस का उद्रेक भले ही कर दें, बौराई देह को तृप्त नहीं करतीं, विक्षिप्त अवश्य कर देती हैं। काल्पनिक सुख मीरा - स्त्री - को दांपत्य जीवन की कटुता से पल भर को मुक्त करा सकता है, शारीरिक उत्ताप को शीतल नहीं कर सकता। 'कबहुं मिलैगो मोहिं आई रे तू जोगिया... मिलि का तपत बुझाई' - अपनी सेक्सुएलिटी का अकुंठ स्वीकार करती है मीरा और अतृप्ति की पीड़ा का भी - 'नींद नहिं आवै जी सारी रात। करवट लेकर सेज टटोलूं रूं पिया नहीं मेरे साथ' तथा 'सूनी सेज जहर ज्यूं लागे, सिसक-सिसक जिय जावे निद्रा नहिं आवे।'
लौकिक जीवन का यथार्थ मीरा को पुनः एकाकी और पराजित कर देता है। 'मैं तो जाणूं जोगी संग चलेगा' - बारह वर्ष के सान्निध्य को धता बता कर अन्यत्र चले जाने वाला जोगी क्या विश्वासघाती नहीं? मीरा 'जोगी' के इस पुरुष-चरित्र को खूब पहचानती है जिसका 'मर्म' पाना स्त्री के लिए संभव नहीं। लेकिन प्रेमजन्य विश्वास और संवाद के कारण हार्दिकता के तंतुओं को इतनी जल्दी झटकना नहीं चाहती। स्त्री बहुत जल्द विश्वास नहीं करती। कर ले तो उसकी सूक्ष्म व्यूह-रचना से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाती। मीरा का द्वंद्व और हताशा, भटकन और विरह स्त्री की इसी मानसिकता की स्वाभाविक परिणति है। आत्मछलना से दूर तक अपने को बींध कर क्षरित करती चलती है स्त्री। विकल्पों और संभावनाओं के महल खड़े कर अपने छिलते वजूद को आधार देना चाहती है। शायद भगवा भेष धारण कर के जोगी मिल जाए उसे -
' जोगिया ने कहियो रे आदेस।
आऊंगी मैं, नांहि रहूँगी कर जोगन को भेस।
चीर को फाड़ूं कंथा पहरूं, लेऊंगी उपदेस।
गिणत गिणत घिस गई रे मेरी उँगलियाँ की रेख।
मुद्रा माला भेष लूं रे, खप्पड़ लेऊं हाथ।|
जोगिन होय जग ढूँढ़सूं रे, रावलिया के साथ।'
या प्रेम पगे उलाहने में अपने 'त्याग' की कातरता पिरोने से पिघल जाए वह -
' इतनूं काई छैं मिजाज, म्हारै मिंदर आता, थांने इतनूं काई छैं मिजाज़।
तन मन धन सब अरपन कीनूं, छाड़ी छै कुल की लाज
दो कुल त्याग भई बैरागण, आप मिलण की लाग।'
या शायद पूर्ण समर्पण से उसका अहं तुष्ट हो जाए -
' जोगी आ जा आ जा, जोगी पाई परूं मैं हौं चेरी तेरी।'
इस स्त्री का एकमात्र जीवन-सत्य है - 'रमइया बिन रह्यो ही नजाई।' तन-मन को बाँध जाती ठीक वही कामातुरता जो मित्रो... मित्रो मरजानी, कृष्णा सोबती को डिप्टी के साहचर्य के लिए उन्मत्त बनाती है और अपनी कामनाओं की 'वाचाल' अभिव्यक्ति कर भीतर ही भीतर वर्जना-भंग के 'सुख' से आनंद पाती है। उल्लेखनीय है कि हिंदी कथा साहित्य में स्त्री की दैहिकता को पहली बार खुली-स्पष्ट शब्दाभिव्यक्ति देने वाली कृष्णा सोबती स्त्री को मिलन के सुख से वंचित करती हैं। मित्रो मरजानी या सुखानुभूति के जरिए सार्थकता की परितृप्ति करने के बाद मिलन एवं साहचर्य को किसी क्षीण सी नैतिक रेखा के अधीन स्थगित कर देती हैं सूरजमुखी अँधेरे के में। यह परंपरा का स्वीकार है? अंततः नैतिक मर्यादाओं का अतिक्रमण न कर पाने की कातरता? अथवा स्त्री संबंधी पुरुष-निर्मित मान्यताओं एवं पूर्वाग्रहों को धता बता कर स्त्री मानस का सही परिचय देने की व्याकुलता ताकि स्त्री-पुरुष संबंध एवं सामाजिक व्यवस्था की पुनर्संरचना नई आधारभूमि पर संभव हो सके? मीरा के पदों को यदि आध्यात्मिकता के कुहासे से मुक्त किया जाए तो वे जीवन के राग, उल्लास, उत्सव और ठाठ-बाट के साथ ऐंद्रिकता के उद्दाम का भी संस्पर्श करते हैं। घनघोर लौकितता के बीच घोर श्रृंगारिक बाना। मनोवृत्तियों का प्रकाशन भी ठीक नैसर्गिक रूप में है - व्यंग्य, आवेश, आक्रोश, पीड़ा, हठ, अहंकार। मीरा अपनी इच्छाओं के उच्छ्ल आवेग को जानती है, उन्हें पूरा करने की विधि नहीं जानती। यह उसका 'दरद' है क्योंकि लौकिक प्रिय के लौकिक स्वरूप को समाज स्वीकृति नहीं दे सकता। प्रेमदीवानी स्त्री की समाज में तभी स्वीकृति है जब उसका प्रेम पति को निवेदित हो गृहस्थ धर्म का पर्याय बन जाए या ईश्वर को निवेदित होकर अध्यात्म का उदात्त भाव जो अपनी लौकिक व्यंजना में पति में ईश्वरत्व का आरोपण कर उसकी सत्ता को स्वयंसिद्ध एवं अ-चुनौतीपूर्ण बनाए रखने का उपक्रम मात्र है। जब-जब स्त्री ने अपने प्रेम की उत्कटता को मजनूं, रांझा या फरहाद का नाम देकर किसी जीवित पुरुष को सामने रख कर राग भरे संयुक्त जीवन का स्वप्न देखा है, समाज ने लैला, हीर और शीरीं के रूप में अंकुराती स्त्री-स्वच्छंदता को जड़ से उखाड़ फेंका है। प्रेमोन्मादिनी स्त्री गृहस्थी के लिए, पुरुष के वर्चस्व के लिए, संबंधों के विषमतामूलक ढाँचे की दीर्घायु के लिए, धर्म एवं राजसत्ता के लिए चुनौती है जो अपनी निरीहता में समूची व्यवस्था की मजबूत आधारशिला को हिलाने का सामर्थ्य रखती है। स्त्री के परकीय प्रेम की स्वीकृति का अर्थ है स्त्री की स्वतंत्र सत्ता, योनिकता और महत्वाकांक्षा की स्वीकृति जो अपने लिए मशः आधी जमीन और आधा असमान माँगने के उपरांत षड्यंत्रकारी समाज व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने का साहस जुटाएगी। मीरा के पद प्रेमाकुल मीरा के जीवनोल्लास, मोहभंग और समर्पण के तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं के जरिए व्यवस्था के समक्ष स्त्री की असफल संघर्ष-यात्रा का आरेखन करते हैं। मीरा लौकिक प्रिय जोगी से नहीं मिल सकती। अपनी संस्कारग्रस्तता जिसे स्त्री के शील और संकोच के रूप में महिमामंडित किया जाता है, प्रिय की कायरता जो पुरुष की भ्रमरवृत्ति के रूप में उसके पौरुष का श्रृंगार कही जाती है, किंतु स्त्री की दृष्टि में यह उसकी लंपटता है अथवा पारिवारिक नियंत्रण के कारण यह प्रेम सिरे नहीं चढ़ता। मीरा शील और संकोच को अँगूठा दिखा कर अपनी कामनाओं को अभिव्यक्त कर चुकी है। परिवार के अंकुश बेमानी हैं। रमते जोगी से संवाद और 'दरस' पाने के लिए साधु-संगति शुरु कर दी है - 'गिरधर गास्यां, सती न होस्यां, मन मोह्यो घण नामी। जेठ बहू को नहिं राणाजी, थे सेवक म्हे स्वामी।' बस, मात खाई है तो प्रेमी की भ्रमरवृत्ति से जो अभिज्ञान बन कर उसे विकल्पहीन सांत्वना तो देती है, किंतु सब कुछ खो देने के उपरांत -
' जो मैं ऐसो जानती रै, प्रीत किए दुख होय
नगर ढिंढोरा फेरती रै, प्रीत करो मत कोय।'
इस प्रेम-प्रवंचिता ने घर खोया है, अंतरंग संबंध की हार्दिकता के प्रति विश्वास को खोया है, यथार्थ जगत की विभीषिका के साथ-साथ पग-पग पर अपनी स्त्री जाति की सीमाबद्धता का साक्षात्कार किया है। घर-बाहर लीक से हट कर कुछ करने को स्वतंत्र नहीं। वर्तुलाकार परिधि में इंद्रियों को नकार कर जीने वाली जीवन यात्रा - यही है कुल स्त्री जीवन। मीरा की स्त्री फैल-फूट कर अपना वजूद पाना चाहती है, किंतु अंकुराने के लिए बिेंाा भर जगह और बूंद भर नमी भी नहीं पाती। सपनों का नष्ट हो जाना मनुष्यता का नष्ट हो जाना है। मीरा के भीतर जीवन ठाठें मार रहा है। वह अपने को बचाना चाहती है। इसलिए प्रेम पर भक्ति का अरोपण कर प्रिय की स्मृतियों के साथ अपने अनुभव संसार - प्रीत - को अमर कर देना चाहती है -
' जोगिया सों प्रीत कियाँ दुख होय।
प्रीत कियाँ सुख नहिं मोरी सजनी, जोगी मीत न कोई
रात दिवस कल नाहिं परत है, तुम मिलियाँ बिन मोई
ऐसी सूरत या जग माहीं, फेरि न देखी सोई
मिलिया आनंद होई।'
अब जोगी गिरधर है और मीरा गोपिका। प्रेम पर दार्शनिकता के आवरण का खेल मजे से चल सकता है -
' आज्यो आज्यो गोविंदा म्हारै म्हैल
निहारां थारी बाटड़ली खड़ी जी
साधु हमारी आतमा जी, हम साधुन की देह
रोम रोम में रम रही जी, ज्यूं बादल में मेह
सुरत हरि नाम से लागी जी।'
तथा
' आवो आवो जी रंगभीना म्हारै म्हैल,
प्यालो तो लियाँ हाजर खड़ी।
सतजुग में सूती रही, त्रेता लई जगाय।
द्वापर में समझी नहीं, कलजुग पोंहच्यो आय।
सतगुरु शब्द उचारिया जी, बिनती करों सुनाय।
मीरां नैं गिरधर मिल्या जी, निरभै मंगल गाय।'
मीरा के विरह पदों में मूर्त का अमूर्तीकरण व्यवस्था के प्रति मीरा के निरुपाय समर्थन की दमघोंटू व्यथा है। यही कारण है कि मीरा के इन तथाकथित भक्ति पदों की उत्कटता, हार्दिकता एवं भास्वरता क्षीणतर होते-होते भक्ति के लयबद्ध सुमिरन में घुट कर रह गई है। तुलनात्मक अध्ययन हेतु दो पद उद्धृत हैं :
' ए दोई नैण कह्यो नहिं मानैं, नदियाँ बहै जैसे सावन की
कहा करूँ कछु नहिं बस मेरो, पांख नहिं उड़ जावन की
मीरा कहै प्रभु कब रै मिलैगो, चेरी भई हूँ तेरे दावन की'
तथा
' पिया म्हारै नैनां आगै रहज्यो जी।
नैनां आगे रहजो म्हाने, भूल मत जाज्यो जी।
भोसागर में बही जात हूँ, बेग म्हारी सुध लीज्यो जी।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, मिल बिछुरन मत कीज्यो जी।'
भक्ति के आरोपण के कारण मीरा अपनी ही कही बात उलटाने को विवश हुई है। जोगी को ढूँढ़ने के लिए मीरा को 'चारूं देस में' घर-घर अलख जगाना पड़ा है। संभवतया तीर्थाटन जैसे स्त्री-निषिद्ध कर्म में लीन होने की तत्परता के पीछे संकल्पदृढ़ प्रेम विरहिणी स्त्री की प्रिय शरीरी पुरुष अथवा स्वप्न पुरुष अशरीरी को पाने की क्षीण आकांक्षा रही हो, किंतु अब जब से प्रिय गिरधर या साँवरिया हो गया है, निर्गुण संत कवियों की तरह वह उसके हृदय में बसने लगा है - ' जिनके पिया परदेस बसत हैं, लिख लिख भेजैं पाती।/मेरे पिया मेरे मांहि बसत हैं, कहूँ न आती जाती।' संभवतया यह वही स्टेज है जब मीरा वृंदावन-काशी आदि में घूमने, साधु-संतों की संगति करने के उपरांत स्थायी तौर पर द्वारिका में बसी थीं - द्वारिका जो जीवन-राग से आपूरित रसिया कृष्ण की नहीं, रणछोड़ कृष्ण की नगरी है। तो क्या रणछोड़ की शरण में आना मीरा द्वारा अपने 'रण' को छोड़ने का सार्वजनिक ऐलान है? क्या यह समर्पण और विश्रांति की अवस्था है जहाँ जीवन की निस्सारता और अपने संघर्ष की व्यर्थता देख कर मृत्यु की प्रतीक्षा जीवन का अंतिम विकल्प बनती है?
क्या यह सचमुच मीरा के संघर्ष की व्यर्थता है?
मीरा के विद्रोह की निस्सारता?
चार
' माई मैं तो लियो है सांवरिया मोल'
मीरा के भीतर की नारी वैषम्य एवं दमन पर आश्रित विवाह संस्था की जड़ता के कारण आहत है। प्रेम उसे परिपूर्णता नहीं दे पाता क्योंकि लोकापवाद का भय स्त्री के लिए सारे दरवाजे बंद रखता है। अलबत्ता पुरुष चाहे तो प्रेम के नाम पर कितनी ही स्त्रियों का आखेट करने को स्वतंत्र है। मीरा सहअस्तित्वपरक समाज की परिकल्पना करना चाहती है, लेकिन चाह कर भी अपने लिए मनमीत नहीं जुटा पाती। उसकी 'बात' समझने के लिए उसकी 'भाषा' और 'विचार' से कोई साझा तक नहीं करना चाहता। वह अकेली है लेकिन पराजित नहीं। स्वप्न-पुरुष की तलाश में बेशक असफल रही है, किंतु स्त्री की दृष्टि से स्वप्न-पुरुष की आधारभूत विशिष्टताओं को गिनाना नहीं भूलती। पुरुष ही सदा सर्वदा आदर्श स्त्री-छवि की सैद्धांतिकी क्यों गढ़े? वह सबसे पहले स्त्री-पुरुष संबंधों में परस्पर समानता, सद्भाव और हार्दिकता की माँग करती है जहाँ किसी एक का व्यक्तित्व दूसरे का विलयन न करे, बल्कि साथ-साथ विकास और परिष्कार की संभावनाओं को फलीभूत करे। ऐसी अवस्था में कोई एक श्रेष्ठ और दूसरा हीन, कोई एक उपास्य और दूसरा उपासक नहीं होगा बल्कि एक-दूसरे से निरपेक्ष अपने आप में पूर्ण होंगे। पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्री के पुरुष निरपेक्ष रूप पर विचार करने की स्वतंत्रता ही नहीं देती। मीरा इस व्यवस्था का अतिक्रमण करने के लिए स्वप्न-लोक रचती है जहाँ की सामाजिकता विवाह-सूत्र में बँधी स्त्री के समक्ष न पातिव्रत्य की कठोर एकांगी साधना का आदर्श प्रस्तुत करती है, न वैधव्य का अभिशाप।
'अचल सुहाग' का वरदान देने वाला 'वर' मीरा की दृष्टि में 'जगदीस' से कम नहीं क्योंकि पुरुष वर्चस्व को कोई अलौकिक सत्ता ही मात कर सकती है, अकेली स्त्री या स्त्रियों का समवेत स्वर नहीं। 'ऐसे वर को क्या वरूं जो जन्मे और मर जाए' - मीरा अभिधात्मक अर्थ में अविनाशी पुरुष की कामना नहीं कर रही, वह संबंध को जन्म और मृत्यु के आदि-अंत से मुक्त कर नित्य और नवीन कर देना चाहती है। ऐसा पूर्ण पुरुष निश्चय ही पत्नी से बौद्धिक-मानसिक-भावनात्मक ऐक्य की अपेक्षा करेगा, उसकी देह पर अपनी सत्ता की दंभी घोषणा करते सुहाग-चिह्नों की अनिवार्यता की नहीं। 'मांग और पाटी उतार धरूंगी, ना पहिरूं कर चूड़ो/ मीरा हठीली कहे संतन सों, बर पाया छै मैं पूरो' - मीरा इन सुहाग-चिह्नों में अपने स्त्रीत्व और निजता की पराजय अनुभव कर रही है।
मीरा आरोपित विवाह संबंध को अस्वीकार कर स्त्री द्वारा स्वयं पति रूप में पुरुष का वरण करने की स्वतंत्रता की पक्षधर है। विवाह संस्था स्त्री की देह पर की जाने वाली द्विपक्षीय संधि नहीं, न ही प्रतिशोध और प्रतिकार की अमानुषिकता। विवाह संबंध देह का कामुक खेल या कुलवृद्धि का शुष्क दायित्व नहीं, जीवन सहचर पाने की अनुराग भरी प्रक्रिया है। फलतः संबंध न आनन फानन में तय हों, न बाहरी दबाव से। ठगे जाने की प्रतीति ही न रहे, इसलिए ठोक बजा कर साथी ढूँढ़ने का अवसर और अधिकार पाना चाहती है मीरा। यहाँ न नारीसुलभ लज्जा की स्वीकृति है मैं तो देख्यो है घूंघट के पट खोल, न अज्ञानी और अव्यावहारिक स्त्री की स्तुति मैं तो लियो है बराबर तोल। मीरा की पूर्ण-पुरुष की प्रत्याशा वस्तुतः विवाह संस्था की जड़ताओं का नकार है। यह एक ऐसे समन्वित स्त्रीवाद का स्वप्न है जहाँ स्त्री 'मनुष्य' है - पत्नी, परित्यक्ता, विधवा या वेश्या नहीं और पुरुष भी 'मनुष्य' है, पति और रसिया नहीं। यह वही समन्वित स्त्रीवाद है जो मिथकों में अर्धनारीश्वर की परिकल्पना के जरिए और समकालीन हिंदी साहित्य में मृदुला गर्ग के उपन्यास 'कठगुलाब' के विपिन और गुजराती साहित्य में कुंदनिका कापड़िया के उपन्यास 'दीवारों के पार आकाश' के आनंदग्राम के पुरुष पात्रों के जरिए उभर कर आता है।
मीरा का स्वप्न-पुरुष रसिया कृष्ण के रूपक में उपस्थित होकर दांपत्येतर प्रेम का पैरोकार भी है। प्रेम को समय व समाज की संकुलता से मुक्त कर वह दिक्काल से जोड़ता है जहाँ 'स्व' से 'समाज' और 'आनंद' से 'आत्मोपलब्धि' की बीहड़ अंतर्यात्राएँ हैं। पूर्वजन्म की गोपिका के रूप में रसिया कृष्ण के संग चीरहरण सरीखी लीला का आनंद उठाने की कसमसाहट मीरा के पदों में एकाधिक बार व्यक्त हुई है। दरअसल यह आकांक्षा वर्जनाहीन प्रेम संबंध को छक कर जीने की मानवीय कामना है जो स्त्री के लिए निषिद्ध है। मीरा निषिद्ध को अपना अधिकार मानना चाहती है किंतु साथ ही जानती है कि उसकी स्त्री मुक्ति की अवधारणा 'स्वप्न-पुरुष' की विवेकशील अवधारणा के बिना संभव नहीं। क्या इस 'स्वप्न-पुरुष' को वह जीवन में पा सकेगी? नहीं, 'अड़सठ तीरथों' का भ्रमण करके और 'वृंदावन कासी' की खाक छान कर भी उसकी उपलब्धि शून्य है - 'वै न मिले जिनकी हम दासी।' मीरा को कहीं विश्वास था कि साधुओं की नगरी वृंदावन-काशी में शायद उसे मनवांछित पुरुष मिल जाए लेकिन वहाँ या तो सभी ब्राण-बनिए क्षुद्र लौकिकताओं में लीन आत्मकामी पुरुष थे या संन्यासी आध्यात्मिक आनंद की तलाश में भटकते वीतरागी पुरुष। इनमें भी मनुष्यत्व का नाम नहीं। अमूमन सभी 'बगल में छुरी, मुँह में राम राम' के बिंब हो साकार करते हुए विश्वासघाती। इसलिए मीरा भौतिक जगत में स्वप्न-पुरुष की तलाश छोड़ कर रसिया कृष्ण की अमूर्त छवि में ही अपनी आशाओं, आकांक्षाओं और सपनों को केंद्रित करने लगती है। उसका स्वप्न-पुरुष समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और राग का प्रसार करता एक अमूर्त विचार है जिसकी ठोस लौकिक उपस्थिति हर काल के स्त्री विमर्श का वरेण्य बिंदु है।
मीरा अंत तक आशा का संबल नहीं छोड़ना चाहती - 'म्हारा गिरधर रसिया छैल, मैं तो चालूं थारी गैल' किंतु लगता है कि अब 'स्वप्न-पुरुष' को आदर्शीकृत करते-करते वह स्वयं ही थक गई है। या शायद भीतर निहित अवश स्त्री भटकते-टूटते पूरी आक्रामकता के साथ उनके स्वप्नों को छिन्न-भिन्न करने में लगी है। यह स्त्री मूलतः दासी है - अपने ही हाथों अपनी स्वतंत्रता का हनन करने को तत्पर! इसलिए नया जोखिम उठाने की अपेक्षा 'स्वप्न-पुरुष' में लौकिक पति की विशिष्टताएँ रख देती है। अब उसे सहचर नहीं, उद्धारक की तलाश है - 'वेग पधारो सांवरा कठिन बनी है, आप बिन म्हारो कुण धनी है।' विद्रोह और दीनता के दो कूलों में प्रवाहित मीरा के स्त्री विमर्श का यह अंतर्विरोध समकालीन स्त्री विमर्श में भी कमोबेश इसी रूप में उपस्थित है जो स्त्री मुक्ति आंदोलन को 'मानवीय पहचान' का आंदोलन न बना कर पुरुष की स्वीकृति और अनुकंपा पाने का उपहासास्पद अनुष्ठान बना देता है।
पाँच
' तेरा कोई नहीं रोकणहारा, मगन होय मीरा चली'
मीरा परमुखापेक्षी स्त्री का मिथक तोड़ कर स्वतंत्र निर्णय लेती नई स्त्री छवि को गढ़ती है। जब जीवन मीरा का है तो उसे परिचालित करने के लिए दूसरे को निर्णय लेने का क्या अधिकार? अपने नारीत्व और बौद्धिक क्षमताओं का पूर्ण स्वीकार मीरा को पारंपरिक समाज-व्यवस्था की आचार-संहिता के प्रति सशंकित बनाता है। रूढ़ियाँ और वर्जनाएँ क्या जीवनानुभवों को निरस्त कर सकती हैं? घर की बंद व्यवस्था के समानांतर मीरा ने साधुओं की सत्संगति में ज्ञान के गवाक्ष खुलते देखे हैं। देशाटन कर लौटे संतों के अनुभव भी विस्तृत हैं और ज्ञान भी। स्वयं मीरा लोक-परलोक की गुत्थियाँ न समझना चाहे, लेकिन आत्मप्रसार करके जगत के साथ एक प्रत्यक्ष नाता तो जोड़ना ही चाहती है। पत्नीत्व और कुल को तिलांजलि देकर उसे अपनी राहों का अन्वेषण स्वयं करना है। बेशक एक राह 'जोगी' की तलाश में 'पूर्ण पुरुष' को पाने की लालसा और आह्लाद तक जाती है, लेकिन ज्ञानार्जन की अभिलाषा में दूसरी राह साधुओं तक ही जाती है। साधु-संगति उसके लिए एक बृहत्तर और सार्थक दुनिया का प्रवेशद्वार है। वह उसके भौतिक/गार्हस्थिक बंधनों की निस्सारता का बोध कराती है। साधु-संगति ने उसे राणा के दिए गहरे घावों को समझने, सहने और बिसारने का औदात्य दिया है। फिर क्यों न वह 'भाग खुल गए म्हारे साध संगत सूं' की प्रतीति में अपने को समृद्धतर करे? पारिवारिक उत्पीड़न ने उसकी दसों दिशाओं को बाधित किया है, साधु-संगति उसी में से उसे हरि के बहाने अपने को पाने की युक्ति बताती है। अपने वजूद को हवा के झोंके की तरह अमूर्त और हल्का बना कर कहीं भी आने-जाने की मानसिक स्वतंत्रता का गुरु-मंत्र पाकर मीरा क्यों न साधु-संगति की भूरि-भूरि प्रशंसा करे -
' धन आज की घरी, सत्संग में परी।
श्रीमद्भागोत श्रवण सुनी, रसना रटत हरी।
मन डूबत लीलासागर में, देही प्रीति धरी।
गुरु संतन की सोहनि सूरत, उर बिच आइ अरी।'
साधु-सेवा मीरा का सहज प्राप्य है, साधु-संगति नहीं। यह उसका सोचा-समझा निर्णय है - अपने मनुष्यत्व को पूर्णता में चीन्हने का उपक्रम। यह ज्ञानार्जन की संश्लिष्ट प्रक्रिया है जिसमें सामने दीखती सच्चाइयाँ अनायास ओझल हो जाती हैं और अपनी परतों के बीच किन्हीं भिन्न अर्थों की व्यंजना करने लगती हैं। यह जगत से, अपने परिवेश से, अपने 'आत्म' से नया परिचय है। आत्मज्ञान नशा बन कर मीरा को भरमा रहा है -
' राणा कहे सौं एक न माना, साधु दुआरे नित आली हे माय।'
मीरा नशे की मादकता को संकल्प बना कर अपनी दिशाएँ और प्राथमिकताएँ तय करने लगती है। मीरा समझने लगती है कि ताल की सीमाबद्धता में बँध कर ज्ञान सड़ने लगता है। अनंत राशि का विस्तार अनंत हो तो अपने पूरे वैभव, सौंदर्य और गहनता के साथ पिपासु को आलोड़ित करेगा। ज्ञान गतिशीलता का पोषक है। एक संकुचित दायरे में पग घुंघरू बाँध कर नाचने और ताली बजाने से वह कितना ज्ञान पा सकेगी? प्रश्न नहीं, ललक स्वप्न बन कर उसे बाहर निकलने को उकसाती है - 'चलां वाही देस प्रीतम पावां, चलां वाही देस'
मीरा का गृहत्याग बुद्ध और महावीर की तरह जगत का परित्याग कर दार्शनिक प्रश्नों को सुलझाने और निर्वाण को पाने की ऊर्ध्वमुखी चेष्टा नहीं, जीवन के उल्लास को जीवन-प्रवाह के बीचोंबीच धँस कर भोगने की शिशुसुलभ उत्सुकता है। वह जीवन का नकार नहीं, जीवन का अभिषेक करना चाहती है, भले ही जिन साधुओं के सहारे वह अपनी बेड़ियाँ काट कर आई है, वे जीवन से विमुख हो समाज को अमूर्त ईश्वर की आराधना का पाठ पढ़ाते हैं। मीरा अपनी मुक्ति की सामाजिक स्वीकृति के लिए अपनी भावाभिव्यक्ति पर ईश-भक्ति का आरोपण करती है, उनकी तरह कहीं-कहीं निरगुनिया भाषा-प्रतीकों का प्रयोग भी करती है, लेकिन संसार को मिथ्या मानने का भाव उसमें नहीं पनपा है। वैराग्य मीरा को लोक और जगत दोनों से जोड़ता है। उसे सामाजिक पदानुक्रम में सबसे छोटे व्यक्ति के साथ संवाद की स्वतंत्रता देता है, और वह पाती है कि दोनों के सुख और दुख, आशाएँ और स्वप्न कितनी समानधर्मा हैं। उस अकेली ने तो जहर का प्याला नहीं पिया। यहाँ तो सभी 'घायल' हैं और 'घायल की गति' जानने, उसका उपचार करने को आतुर भी। राजसत्ता एवं परिवार संस्था के विरुद्ध मीरा-काव्य के प्रतिरोध के स्वर उसकी अपनी मनोकांक्षा बन जाते हैं और मीरा को मिलता है एक बृहद् परिवार।
बेशक वैराग्य ने मीरा के काव्य की प्रखरता को मंद किया है, किंतु उसके विद्रोह को एक नया आयाम देकर घर से बाहर स्त्री की अस्मिता और प्रतिष्ठा को स्वीकृति दी है। मीरा के काल तक स्त्रियों के लिए धर्मपरायणता का अर्थ था पति/पुरुष की सेवा, गार्हस्थिक-सामाजिक दायित्वों की पूर्ति, धार्मिक उत्सवों/अनुष्ठानों में यथानिर्दिष्ट भागीदारी, भक्ति की नित्यमिक चर्या की पालना और साधु-सेवा। धर्म, धर्मग्रंथों के मर्म, ईश्वर के स्वरूप पर विचार करने या माया एवं अध्यात्म से जुड़े दार्शनिक प्रश्नों पर विचार करने की आज्ञा उसे नहीं थी क्योंकि वेदपाठ शूद्रों के साथ-साथ स्त्रियों के लिए भी वर्जित था और गार्गी आदि स्त्रियों की तरह तर्क करना स्त्रियोचित धर्म के प्रतिकूल। स्त्री न संन्यास लेने के लिए स्वतंत्र थी, न तीर्थाटन करने के लिए। पहली बार मीरा इस वर्जना को तोड़ती है। संन्यास उसके लिए जीविकोपार्जन का जरिया ही नहीं आज के संदर्भ में यह नौकरीपेशा स्त्री के आर्थिक स्वावलंबन की समतुल्यता में ठहरता है जहाँ दो जून भोजन के लिए उसे परिवार के अनुग्रह पर आश्रित नहीं रहना पड़ता, ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करने के बहाने आत्मस्थ होने का, साधु-संगति के बहाने ज्ञानार्जन करने तथा तीर्थाटन के बहाने गतिशील होने और अपना सामाजिक दायरा बनाने का महत्वपूर्ण माध्यम भी था। दरअसल देह में अवस्थित कामनाओं के ज्वार को पहचान कर ही मीरा अपनी निजता पाने के लिए महत्तर लक्ष्य की ओर उन्मुख हो सकी है। वैराग्य और भक्ति चूँकि मीरा का ध्येय नहीं रहा, इसलिए अपनी भावनाओं का उदात्तीकरण करने की बौद्धिक कवायद भी उनमें दिखाई नहीं देती। अंत तक दांपत्य जीवन की कटु स्मृतियाँ उन्हें सालती रहीं और भीतर की तपन बुझाने के लिए वे राणा को गरियाती रहीं हैं।
आज की स्त्री विमर्शकारों की तरह मीरा भी जानती हैं कि स्त्री की मुक्ति का रहस्य उसकी स्वतंत्र निर्णय क्षमता में निहित है। निर्णय लेना जोखिम का काम है क्योंकि भविष्य के गर्भ में छिपे उसके दूरगामी प्रभाव सकारात्मक होंगे या नकारात्मक - पूर्वानुमान हमेशा सही नहीं होता। अतः निर्णय लेना जितना महत्वपूर्ण है, उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उसकी जवाबदेही के प्रति स्वयं को तैयार करना। मीरा अपने हर निर्णय के लिए जवाबदेह है। इसलिए गलत साबित होने पर किसी दूसरे को लांछित-धिक्कारती नहीं, स्वयं उस स्थिति से मुठभेड़ करने के लिए अपने को मानसिक-नैतिक रूप से तैयार करती है। साधु-संगति के लिए बेहद ललकती मीरा ने कभी सोचा भी न होगा कि जिस विषमतामूलक दमनकारी व्यवस्था को महल के भीतर छोड़ कर वह गलियों में आई है, वह अपने उसी दंभी, निर्लज्ज, नग्न रूप में साधुओं की जमात में मिलेगी। साधु-संगति की लालसा में वृंदावन और काशी की गलियों में घूमती मीरा को 'पुरुष' मिले हैं, 'साधु' नहीं। यह मीरा का मोहभंग है। तीर्थाटन उसे उद्देश्यहीन लगता है और ज्ञान-चर्चा पाखंड। आरंभिक उत्साह के बाद मीरा अपने काव्य में साधुओं को लेकर अचानक मौन हो जाती है। बस, इतनी सी टिप्पणी करती है कि ' कासी को लोग बड़ो बिसवासी, मुख मैं राम बगल मैं फांसी'। उसकी पूरक कथा 'वैष्णवन की वार्ता' में लिपिबद्ध है जहाँ मीरा मनुष्य नहीं, मादा देह है; पुरुषों की दुनिया में बलात् घुस कर उनका चरित्र स्खलन करने वाली मायास्वरूप कामिनी। इतना भीषण स्त्री द्वेष! क्या इसलिए कि उसने न किसी के दबाव में आकर किसी पंथ विशेष की दीक्षा ली और न अपनी साधना-पद्धति बदली? काव्य-रचना उसके लिए न पांडित्य प्रदर्शन का माध्यम रही, न भक्ति की दार्शनिक मीमांसा या परलोक प्राप्ति का सुलभ जरिया। वह तो उसके भीतर बहती भावनाओं का स्फोट है, आत्मालाप-आत्माभिव्यक्ति और आत्मप्रसार का जरिया जिसमें उसकी दमित वासनाएँ और अमूर्त सपने दोनों अपनी संपूर्ण सत्ता के साथ विद्यमान हैं - अपने मनोजगत का प्रत्यक्षीकरण! पारदर्शी मीरा की दमघोंटू चुप्पी चरित्र-हनन के मर्मांतक घाव की टीस को अंत तक सहन न कर पाने की वेदना से जन्मी है। संसार से विरत योगियों की दुनिया में भी स्त्री-पुरुष का लौकिक पदानुक्रम कहीं अधिक घृणा और वासना के साथ मौजूद है। तो क्या ज्ञान व्यक्ति को मुक्त नहीं करता? उसकी क्षुद्रताओं और संकीर्णताओं पर शील और उदारता का मुलम्मा चढ़ाता है? मीरा की पीड़ा आज के स्त्री विमर्श की भी पीड़ा है। स्त्री को पत्नी/स्त्री से इतर कुछ भी 'होने' के लिए आग के दरिया से गुजरना ही होगा। 'नारि पुरुष के संबंध झूठे' - यह बोध मीरा को विरक्त बनाता है और उसकी असहायता को तीव्रतर करता है - 'सगो सनेही मेरो और न कोई, बैरी सकल जहान।' वास्तव में यहाँ इस अनुभव से गुजर कर मीरा को पहली बार सही मायनों में 'गली तो चारों बंद हुई' की प्रतीति होती है। जाहिर है इसके बाद 'रण' छोड़ कर द्वारिका के रणछोड़ कृष्ण में समर्पण और दैन्य से भरी निष्क्रिय भक्ति करना जीवित मीरा की लौकिक मजबूरी बन जाती है। विश्वासभंग की इस चोट ने मीरा से जीवन की महक, उल्लास, संघर्ष और आशा की खनकती गूँज को छीन लिया है।
मीरा की जीवन-यात्रा का यह हश्र पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पुनरीक्षण की माँग को वैध और न्यायोचित बनाता है। आखिर कब तक मनुष्य बन कर जीना खारिज करते रहेंगे हम?
छह
' ओ जी महाराज छोड़ मत जाओ, मैं अबला बल नाहीं'
' आधी राणा की फौज, आधी मीरा एकली रे' का उद्घोष करने वाली मीरा की तेजोमयता मलिन होते-होते जब आत्मदया में तब्दील होने लगती है, तब पितृसत्तात्मक व्यवस्था की कार्य-शैली की पड़ताल करना अनिवार्य हो जाता है। आखिर 'मनुष्य' को तोड़ कर 'छवि' बनाना इतना सरल नहीं होता। सीमोन द बउवा ने बहुत ठीक कहा है कि पुरुष कभी स्त्री का साथी, मित्र, हितैषी नहीं रहा। जज, ज्यूरी, अभियुक्त आदि सभी भूमिकाओं में अदालत में वह खुद बैठा है, अतः स्त्री की फरियाद पर कान न देना और उल्टे उसे ही सींखचों के पीछे धकेल देना उसका 'धर्म' है। यह शासन-तंत्र की कूटनीति है और आत्मरक्षा का नुस्खा भी। पुरुष का 'आत्म' अपन पूरे वर्ग के अहं की रक्षा के साथ जुड़ा है, इसलिए स्त्री के दमन के लिए स्त्रीद्वेषी युक्तियों को अपनाने, स्त्री को लेकर कुत्सित कुटिल यथार्थ को गढ़ कर उसी में 'स्त्री-सत्य' को कैद करने, उस आरोपित 'स्त्री सत्य' के सहारे 'बुद्धिहीना', 'कामिनी' स्त्री को फटकारने-धिक्कारने का विवेकशील 'पुरुष-धर्म' और हाशिए पर फेंकी गई स्त्री को रोटी- कपड़ा-मकान जैसी भौतिक सुविधाएँ देकर गृहस्वामिनी/देवी बनाने जैसा 'बड़प्पन' जताने के पीछे अपनी स्थिति को निरापद बनाने की साजिशें हैं। स्त्री उसकी 'सहयोगिनी' है और उसी के जरिए वह स्त्री को अपनी सत्ता पर समग्रता और निस्संगता से विचार न करने का संस्कार देता है। इसलिए यह व्यवस्था सबसे पहले माँ के रूप में ही बेटी स्त्री पर वर्जनाओं के अंकुश लगा उसे 'बधिया' करती है और उसे 'मनुष्य' नहीं, 'स्त्री' बनने का प्रशिक्षण देती है। इस प्रशिक्षण में लाज, संकोच, शील जैसे अमूर्त मानवीय मूल्यों को आभूषण की तरह शोभित करने के साथ-साथ नख से शिख तक भौतिक आभूषणों को धारण करने, उसे पुरुष की सामाजिक हैसियत से जोड़ कर देखने और सुहाग-चिह्न का रूप देने का संस्कार विद्यमान है। शिवरानी देवी के लाख प्रतिवाद के बावजूद प्रेमचंद जैसा प्रगतिशील लेखक तक यह स्वीकार नहीं कर पाया कि स्त्रियों की आभूषण-प्रियता की बात सच्चाई नहीं, गढ़ंत है तथा आज की इक्कीसवीं सदी का मीडिया धारावाहिकों के जरिए पढ़ी-लिखी विद्रोही स्त्री को भारी भरकम जड़ाऊ जेवरों के मोह से मुक्त नहीं कर पाया तो सोलहवीं शताब्दी के सामंती परिवेश की राजरानी मीरा की स्त्री चेतना आभूषण-चेतना से कैसे मुक्त हो सकती थी? आभूषण को सौंदर्य और सौंदर्य को 'स्त्रीत्व' के साथ जोड़ कर आभूषण को स्त्री के लिए अपरिहार्य बना देना असल में पुरुष-प्रधानता के लिए स्त्री की चेतना को कंडीशन करना है। मीरा सजग-सचेत अवस्था में विद्रोह की टंकार करते हुए आभूषणों के परित्याग की गर्वभरी घोषणा करती हैं किंतु आक्रांत कर लेने वाले यथार्थ का सामना न कर पाने की अवशता में जब अपनी स्त्री-नियति का स्वीकार करती हैं तो हरि को रिझाने के लिए व्यवस्था की वाणी ही बोलने लगती हैं -
'म्हे तो नखसिख गहणों पहरियो, म्हे तो जास्यां सांवलड़ा री सेज।'
यह व्यवस्था स्त्री के अहं और व्यक्तित्व दोनों को ही बचपन से विकसित नहीं होने देती। अबला और परनिर्भर होने का बोध उसकी सीमाओं को सुपरिभाषित करता चलता है और इस प्रक्रिया में न उड़ने को आसमान देता है, न पैर टिकाने को जमीन। वह 'अंकशायिनी' है, इसलिए 'अंक' की अधिकारिणी बनने के लिए रोज अपनी सुपात्रता और उपादेयता सिद्ध करनी पड़ती है। जाहिर है मान और स्वाभिमान की बात उसके लिए बेमानी हो जाती है। प्रमुख रहती है अनुकंपा की याचना - 'हा हा करत हूँ, पैयाँ परत हूँ, मत करो मान गुमान।' पति के दंभ की धज्जियाँ उड़ा देने वाली स्त्री की यह कातरता उसकी शक्ति के चुक जाने से ज्यादा शक्ति को सही दिशा में निवेशित न कर पाने की दृष्टिहीनता से उपजी है। यह दृष्टिहीनता अंततः पितृसत्तात्मक व्यवस्था के आंतरिकीकरण की अलक्षित प्रक्रिया को त्वरित करती है जहाँ नकारी जाने वाली शक्ति पुरुष वर्चस्व ही उपास्य, लक्ष्य और स्वप्न बन जाती है। यहीं से आत्मदया और आत्मविघटन की प्रक्रिया शुरु होती है - ' म्हे तो जनम जनम की दासी, थे म्हारां सिरताज' तथा 'तुम तो स्वामी गुण रा सागर, म्हारा औगण चित्त मत ल्याज्यो।' यदि यह स्वीकारा जाए कि जागरूक मीरा स्त्री को पराधीन बनाने वाली व्यवस्था की साजिशों को समझती थी और इसीलिए बेहद चौकन्ने भाव से अपनी जीवन-यात्रा के पहले चरण में उनका विरोध करती रही तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि अब वह अपनी दीनता और पराजय का स्पष्ट स्वीकार कर रही है? क्या इस स्वीकृति में अपने 'किए' पर प्रायश्चित भी है? यदि नहीं, तो 'म्हाने चाकर राखो जी' श्रृंखला के अनेक पदों में वे भौतिक जरूरतों को ही नहीं, बल्कि आत्मसम्मान को न्यूनतम करते हुए ' जो थे देशी, सो म्हे लेशी, याई मत म्हारे पूरी' की रिरियाती याचना क्यों करती हैं?
दरअसल स्वयं मीरा अपनी लैंगिक पहचान से मुक्त नहीं हो पाई हैं। बेशक सजग तौर पर वह जानती है कि मानवीय मूल्यों का दंभ भरने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था में 'मनुष्य' का निषेध है। यहाँ उसके स्थानापन्न रूप में हैं लिंग, वर्ण, वर्ग। आम स्त्री की तरह मीरा की भी यह त्रासदी है कि अवचेतन में व्यवस्था के इसी दबाव को उसने संस्कार रूप में ग्रहण किया है। यह संस्कार उसके मांस-मज्जा तक धँसा हुआ है, शायद इसलिए कि उसे इतना एक्सपोजर नहीं मिला कि कल्पना करके अपनी मुक्ति की राहों का अन्वेषण कर सके, विचार-विश्लेषण कर व्यवस्था का कोई नया प्रारूप तैयार कर सके या अकेले अपनी समानांतर सत्ता स्थापित कर पितृसत्ता की दीर्घायु को चुनौती दे सके। मीरा की 'स्वप्न-पुरुष' की अवधारणा पुरुष से चोट खाकर पुरुष में ही अपने स्त्रीत्व की सार्थकता ढूँढ़ती है। चूँकि वह स्वयं 'स्त्री' है विशिष्ट लैंगिक पहचान से युक्त सामाजिक निर्मिति, अतः सहचर की कामना में पुरुष हमेशा 'पति' रूप में आ विराजता है और वह दासी रूप में। अपनी तमाम मासूमियत में मीरा नहीं जान पाती कि समर्पण की इस दैन्य अवस्था में उसने कृष्ण/स्वप्न पुरुष को पति की ही तरह अलभ्य, कठोर, छलिया और श्रेष्ठ बना दिया है जिसके संग संबंध निभाने की इकतरफा कोशिश उसी के हिस्से आन पड़ी है -
' थे तो पलक उघाड़ो दीनानाथ, मैं हाजिर नाजिर कब की खड़ी।'
यहीं इस बिंदु पर अनायास वह स्त्री की परंपरापोषित निष्क्रिय और अनुत्पादक छवि की प्रतिष्ठा करने लगती है जहाँ स्त्री प्रतीक्षारत है 'कान्हा तोरी रे जोवत रह गई बाट'; अकेली और असुरक्षित है 'हो जी महाराज छोड़ तम जाओ, मैं अबना बल नाहिं गुसाईं, तुम्हीं मेरे सिरताज। मैं गुणहीन गुण नाहिं गुसाईं, तुम समरथ महाराज'; विरह-विदग्ध है 'हो जी हरि कित गए नेह लगाए' मेरे मन में ऐसी आवे, मरूं जहर विष खाय' और अपनी निष्ठा का मुखर प्रदर्शन कर अनुकंपा पाना चाहती है ' म्हारा जनम मरण का साथी, थांने नाहिं बिसरूं दिन राती।' मीरा स्त्री-सुबोधिनी से भी खूब परिचित हैं। अतः आदर्श स्त्री की आचार-संहिता की परिपालना में हरि की आँख की पुतली बनी रहना चाहती हैं। इस आचार-संहिता में नित्यप्रति धर्मोपदेश का श्रवण है, साधु-सेवा का व्रत है, सुमिरन-ध्यान का नेम है, नेकी-बदी के प्रति जवाबदेही है और 'मन हस्ती अंकुस दै मार्यौ' की कठिन साधना है। दरअसल यह साधना अपने को न्यूनतम करते-करते अमूर्त कर देने का षड्यंत्रकारी प्रशिक्षण है। ऐसा नहीं कि मीरा इन षड्यंत्रों को न समझती हो। तीसरे चरण में रचे इन पदों में अवसाद, हताशा, टूटन, थकान, पस्ती, विश्रांति, दुचित्तापन, आत्मधिक्कार आदि इसीलिए हैं कि अपनी मूल वृत्ति से दूर मीरा केा सामाजिक स्वीकृति के लिए वही सब करना पड़ा जिनका वह जीवन भर विरोध करती रही है। चिंतक के रूप में यह मीरा की असफलता है। वह साधक भी नहीं बन सकी क्योंकि साधना की मौलिक उद्भावना के लिए जिस बौद्धिक संपन्नता, कल्पनाशीलता, अंतर्दृष्टि और अतिक्रमण कर जाने की अनिवार्यता है, वह मीरा में नहीं। इसलिए भक्ति सदा आवृत्ति एवं दैन्य, पराजय एवं विश्रांति का पर्याय बन कर यथास्थितिवाद का पोषण करती चलती है, नई आकांक्षाओं को रचने का अनुष्ठान नहीं बन पाती।
मीरा के निजी अनुभव विवाह के इर्दगिर्द बुने हैं। दांपत्य संबंधों में कामना और स्वाभिमान से परिपूर्ण पत्नी की अस्मिता के बरक्स वह पुरुष का दंभ स्वीकार नहीं कर सकती, किंतु भक्ति उसके लिए निजी अनुभव नहीं है। वह जीवन-संघर्ष से पलायन न भी हो तो भी शरणागति की अवस्था तो है ही। सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, अलौकिक ईश्वर की अवधारणा भक्त को 'लो प्रोफाइल' में रहने का संस्कार देती है जहाँ अपनी ऐहिक ऐषणाओं को मार कर 'विदेह' होने का 'अहंकार' है। यह 'अहंकार' एक ओर भक्त को दैन्य अवस्था में घिघियाते रहने की कुंठा से मुक्त करता है तो दूसरी ओर उसकी सत्ता को 'संत' का नाम देकर लौकिक व्यवस्था की परिधि से मुक्त करता है। अब उसका आचरण धर्म, राजसत्ता और अर्थशक्ति के गठबंधन से बनी पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के नियम-अनुशासनों को बाधित-प्रभावित नहीं करेगा। ईश्वर की सत्ता में राजा एवं पति की शक्ति एवं श्रेष्ठता का नियोजन कर मीरा भक्ति के माध्यम से इन्हीं लौकिक संस्थाओं को पुष्ट करती हैं। इसलिए मीरा सहित निर्गुण संत कवियों का विद्रोह अपनी पारिवारिक-सामाजिक अवस्था से शुरु होकर अभाव में जीने वाले अपरिग्रही, संयमी, विवेकशील व्यक्ति के अहंकार में तब्दील होता है और फिर ईश प्राप्ति हेतु स्वयं पर स्त्री की हीन भूमिका का आरोपण कर 'समर्थ' की आराधना में जुट जाता है। यह संघर्ष-यात्रा ऊर्ध्वमुखी न होकर उसी दलदली जमीन पर लौट आती है जहाँ की पकड़ से मानसिक-नैतिक रूप से मुक्त होकर उसने लड़ाई का बिगुल बजाया था।
लिजलिजी भावुकता और इनसानी दुर्बलताओं को नष्ट किए बिना अपने भीतर विद्रोह की ज्वाला सुलगाना व्यक्ति के लिए संभव नहीं। मीरा जानती हैं कि आँसू व्यक्ति को कमजोर बनाते हैं। वे कुछ दुर्बल क्षणों का परिणाम होने के अतिरिक्त उसकी अपनी शक्तियों के निरंतर छीजते चले जाने की ईमानदार स्वीकृति भी होते हैं। यह ठीक है कि एक के आँसू दूसरे व्यक्ति में करुणा का उद्रेक करते हैं लेकिन साथ ही उसके भीतर विशिष्ट होने का आश्वस्तिपरक बोध भी विकसित करते हैं। यह बोध उसे अपने सामर्थ्य, ताकत और उद्धारक की अहम्मन्यता देता है। रोता हुआ व्यक्ति जितना हीन होगा, उतना ही दूसरे का बल और अहंकार बढ़ता जाएगा। हीन को दीन-हीन बनाए रखने में 'उद्धारक' की परदुखकातर छवि पोषित होती है। चूँकि स्त्री अबला और हीन है, इसलिए आँसुओं का संबंध समाज ने उसी के साथ जोड़ा है, पुरुष के साथ नहीं। उल्लेखनीय है कि मीरा ने आँसुओं के सैलाब में अपनी सत्ता को बहने नहीं दिया है। विद्रोह का निनाद करते हुए पारिवारिक उत्पीड़न और राजसत्ता के दमन दोनों को उसने डंके की चोट पर हंस कर झेला है। जोगी के विरह में वह अवश्य रोती है, लेकिन इस रुदन में असहायता नहीं, अपनी उद्दाम कामनाओं की अतृप्ति का स्वीकार है, अर्थात् वहाँ आत्मविस्मरण एवं आत्मदया की स्थिति नहीं। लेकिन जोगी के प्रेम से विरत होकर मीरा जब 'गिरधारी' को समर्पित होती है, तब अन्य भक्त कवियों की तरह विरहिणी आत्मा का चोला पहन वह अपने को आँसुओं से गलाने लगती है। किस तर्क से क्यों परमात्मा पुरुष है और आत्मा स्त्री - इस पर कभी शंका नहीं, न विवाद। आत्मा स्त्री है भी तो उस पर स्त्री-नियति का आरोपण क्यों? मीरा जीवन भर जिस स्त्री-नियति से बचती रही, वह हर मोड़ पर उन्हें धर दबोचने को आगे आती रही। एक दीर्घ परंपरा का सहज स्वीकार मीरा की अवश इच्छा बन जाता है और शुरु हो जाता है उन्हीं-उन्हीं उपमानों-बिंबों-प्रतीकों में विरह-व्यंजना का खेल - यह परंपरा-पालन की लीकबद्धता है अथवा विरह की अपेक्षा अकेलेपन और असुरक्षा से उपजी वेदना। हार्दिकता एवं कामनाओं की खनक नहीं जो व्यक्ति की निजता की गूँज बन कर दसों दिशाओं में फैल जाती है। भक्ति की अर्हता के रूप में स्वीकृत रुदन एक बार फिर समाज-व्यवस्था द्वारा अपनी पकड़ से बाहर जाते संतों/भक्तों पर अपने वर्चस्व की मुहर लगाने और सांसारिक छवियों का पोषण करवाते चलने का षड्यंत्र बन जाता है।
मीरा उत्पीड़न का विरोध कर उन्मुक्त स्त्री का सपना देख सकती है, अपनी स्त्री-नियति को बदल नहीं सकती। मीरा का स्त्री विमर्श इस तथ्य को बहुत गहरे रेखांकित करता है कि व्यवस्था एक साथ अमूर्त और ठोस है, जड़ और सनातन। इसके पास न संवेदना है न भाषा। अतः संवाद की संभावना भी नहीं। अपनी मूल संरचना में यह यंत्र-मानव है - मनुष्यता का निषेध कर मनुष्यता का दिखावा करने वाला तकनीकी कौशल।
मध्ययुगीन सामंती समाज की जकड़न में बँधी मीरा की बड़ी सीमा यह रही है कि उन्होंने लोकतांत्रिक व्यवस्था में शिक्षा और कानूनी अधिकारों के वरदान से संपन्न स्त्री को देखा नहीं। उनके युग की स्त्री सदैव दो मुट्ठी अन्न के लिए दूसरों पर आश्रित रही। योनि और गर्भ के अतिरिक्त उसकी कोई सत्ता नहीं रही। उसके पैरों को घर की ड्योढी लांघने और हाथों को अपने लिए कुआँ खोदने की स्वतंत्रता नहीं थी। मीरा अपने आप में पूर्ण 'अकेली' औरत का बिंब नहीं रच सकती। मुक्ति की कामना शून्य से अनंत तक पहुँच जाने की इकलौती छलाँग नहीं होती, मुक्ति-छलांगों की लंबी श्रृंखला की एक कड़ी मात्र होती है जो परंपरा से दिशा और ताकत लेकर उसमें अपनी एक और छलाँग जोड़ती है। मीरा के पास विरासत के नाम पर पराधीनता में सुख ढूँढ़ने का कांतासम्मत उपदेश है। इसलिए बेशक वह वर्जनाओं को तोड़ कर आत्मप्रसार का निर्णय ले, विद्वद्जन से दिशा-निर्देश पाने के बहाने उन्हें अपनी लड़ाई में शरीक होने की दावत दे, जन-जन तक अपनी बात पहुँचा कर जनमत बनाने का प्रयास करे - वह अपने अकेलेपन से त्रस्त है। स्त्री को लेकर परंपरा और परिवेश में पसरी अनुर्वर अनुगूँजों ने उसे चुप्पियों को सर्जनात्मक बुनावट देने का विवेक नहीं दिया है। वह आत्माभिमानिनी संवेदनशील जागरूक स्त्री की तरह उन सभी स्थितियों का विरोध अवश्य कर रही है जो समकालीन स्त्री विमर्श का केन्द्रीय स्वर है किंतु अपनी देह और जीवन-दिशा के संदर्भ में लिए गए निर्णयों को अंत तक अडिग भाव से स्वीकार नहीं कर पाती। मीरा की इस पराजय में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दबाव मुखर होते हैं जो आज की उन्मुक्त स्त्री के हर स्वतंत्र निर्णय से बौखला कर उस पर अनैतिक और उच्छंखल हो जाने का आरोप लगाते हैं। चूँकि पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पास स्त्री और पुरुष को, सवर्ण और दलित को नापने के प्रतिमान अलग-अलग हैं, अतः नैतिकता और दायित्व, अधिकार और स्वतंत्रता की परिभाषाएँ स्थित्यानुसार बदलने लगती हैं। मीरा का स्त्री विमर्श कृष्णा सोबती और मृदुला गर्ग के जरिए आगे बढ़ कर यदि मैत्रेयी पुष्पा तक न आया होता तो क्या स्त्री अपनी दैहिक मुक्ति की मुखर घोषणा के साथ देह को अस्त्र बना कर प्रतिद्वंद्वी पुरुष को पटकनी दे पाने का हौसला बटोर पाती? पराए मर्दों को लेकर चटखारेदार बातें करती कृष्णा सोबती की मित्रो चूँकि अंततः अपने उसी बगलोल पति सरदारी को समर्पित है और दांपत्येतर देह संबंध को पूरी ह्रर्जा से भोगने वाली मनु चितकोबरा अंततः समाजसेवा में आश्रय पाती है, अतः व्यवस्था को न विवाह संस्था के टूटने का खतरा है, न नैतिकता के दोहरे मानदंडों के खिलाफ उठाए जाने वाले आंदोलन की आशंका। लेकिन मनु जैसी स्त्रियाँ जब 'सिरफिरे' आंदोलनधर्मी सरोकारों से जुड़ कर मंदा, अल्मा, सारंग बनती हैं तो न केवल सड़क-चौराहे पर नैतिकता के दोहरे मानदंडों को अभिमानपूर्वक तोड़ती पुरुष-सरीखी निर्लज्ज और नग्न स्त्री दिखाई पड़ती है, बल्कि पुरुष का 'उपयोग' कर राजनीति में घुसपैठ की 'मर्दाना' चालें भी चलती है। शतरंज की बिसात पर जब सामने वाला खिलाड़ी बराबर का चतुर हो तो हार के जोखिम में खेलने का मजा खत्म हो जाता है। इसलिए मर्दवादी आलोचना समकालीन स्त्री विमर्श को पितृसत्तात्मक व्यवस्था का अतिक्रमण कर अपने लिए मानवीय स्पेस की आकांक्षा करती स्त्री-मुक्ति की अवधारणा के रूप में नहीं पढ़ती, देह-विमर्श में गूँथ कर थू-थू करती है। अपनी अंतिम परिणति में आँसू, समर्पण, दीनता का प्रसार करता मीरा का स्त्री विमर्श उसे स्वीकार्य है। यहाँ तक वह उसके विद्रोह और वेदना को सहानुभूति भी देती है और व्यवस्था को बदलने में अपनी 'मगरमच्छी' तत्परता भी निवेदित करती है। जुलूस में अंधी गली तक जाने और फिर निरापद अपनी दुनिया में लौट आने में भला क्या बुराई है? मीरा के अंतर्विरोध - पितृसत्तात्मक व्यवस्था का आंतरिकीकरण करने की मानसिकता - एक इकाई के रूप में मीरा की पराजय को भले ही संकेतित करें, मीरा द्वारा उत्पन्न स्त्री-चेतना को धूमिल नहीं करते।